मध्य प्रदेश के सागर जिले की खुरई नगरपालिका और उसके एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी देवेंद्र रैकवार के बीच पिछले एक दशक से चल रही वेतन की लड़ाई आखिरकार हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद एक निर्णायक मोड़ पर पहुँच गई है। इस मामले ने न केवल श्रमिक अधिकारों के संघर्ष को उजागर किया है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं और प्रशासनिक उदासीनता की भी पोल खोली है।
नौकरी से बर्खास्तगी और कानूनी लड़ाई का हुआ आगाज़
देवेंद्र रैकवार की कहानी 2003 में शुरू होती है, जब उन्हें खुरई नगरपालिका में भृत्य के पद पर दैनिक वेतन भोगी के रूप में नियुक्त किया गया। 2011 में, अचानक मौखिक आदेश के जरिए उनकी सेवा समाप्त कर दी गई। इस अन्याय के खिलाफ देवेंद्र ने श्रम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 2014 में, श्रम न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए नगरपालिका को उन्हें एक महीने के भीतर सेवा में बहाल करने और 50% बकाया वेतन का भुगतान करने का आदेश दिया।
न्यायालय के फैसले से असंतुष्ट नगरपालिका ने हाई कोर्ट में अपील दायर की। इस दौरान देवेंद्र के लिए मुश्किल समय जारी रहा। आखिरकार, 2021 में, हाई कोर्ट ने नगरपालिका की याचिका खारिज कर दी और देवेंद्र को सेवा में वापस ले लिया गया। हालाँकि, बकाया वेतन के भुगतान का मामला अभी भी अनसुलझा ही रहा।
नगरपालिका द्वारा बकाया वेतन का भुगतान न करने पर देवेंद्र ने कई बार अभ्यावेदन प्रस्तुत किए, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। अंततः, उन्होंने हाई कोर्ट में याचिका दायर की। हाई कोर्ट ने देवेंद्र की दलीलों और श्रम न्यायालय के आदेश को ध्यान में रखते हुए नगरपालिका को 45 दिनों के भीतर बकाया वेतन का भुगतान ब्याज सहित करने का आदेश दिया।
देवेंद्र रैकवार की जीत न केवल उनके लिए, बल्कि उन सभी दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, जो अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह मामला प्रशासनिक संस्थाओं को भी जवाबदेह ठहराने और श्रमिक अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर देता है।